14 दिसंबर, 2009

बरसात


हरी भरी वादी में
लगी ज़ोर की आग
मन में सोचा
जाने होगा क्या हाल ।
फिर ज़ोर से चली हवा
हुआ आसमान स्याह
उमड़ घुमड़ बादल बरसा
सरसा सब संसार |
बरस-बरस जब बादल हुआ उदास
मैंने जब देखा तब पाया
पानी जम कर
बर्फ बन गया |
ओला बन कर
झर-झर टपका
पृथ्वी की गोद भरी उसने
ममता से मन
पिघल-पिघल कर
पानी पानी पुनः हो गया |
काले भूरे रंग सुनहरे
कितने रंग सजाये नभ ने ।
उगते सूरज की किरणें
बुनने लगीं सुनहरे सपने
सारा अम्बर
पुनः हुआ सुनहरा
जीवन को जीवन्त कर गया !

आशा

1 टिप्पणी:

  1. प्रकृति के पूरे चक्र को बड़ी खूबसूरती के साथ आपने चित्रित किया है । एक बहुत ही सुन्दर और सार्थक कविता के लिये आपको बधाई !

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