दो किनारे नदिया के ,
होते है कितने बेचारे ,
साथ-साथ चलते हैं सदा ,
फिर भी मिल नहीं पाते ,
संगम को तरस जाते|
ये जन्म और मृत्यु जैसे नहीं होते ,
जो कभी एक न हो पाते ,
वे कभी साथ न चल पाते |
किनारों में है गहरा बंधन ,
यह बंधन नहीं है अनजाना ,
इसको किसीने न जाना ,
वे अलग-अलग तो रहते हैं ,
पर उनमें है गहरा बंधन ,
बंधन सेतु है बहता पानी ,
जिसका कोई नहीं सानी |
देख एक दूसरे को दोनों ,
आगे तो बढ़ते रहते हैं ,
हमराही भी कहलाते हैं ,
आगे बढ़ते हैं अनजानों से ,
चलते जाते बेगानों से ,
शायद हालातों से है समझौता ,
पर है यह समन्वय कैसा ,
समझौते की बात करें क्या ,
वे ख़ुद ही कटते जाते हैं ,
पर राह छोड़ नहीं पाते हैं |
यदि सलिला नहीं होती ,
शायद वे भी नहीं होते ,
अपना अस्तित्व कहाँ खोजते ,
साथ चले थे साथ चल रहे ,
आगे भी साथ निभायेंगे ,
प्रगाढ़ बंध के कारण हैं वे ,
यह कैसे भूल पायेंगे ,
किसी के साथ चलने की,
होती है हर पल चाह ,
शायद यही है जीवन जीने की राह |
आशा
"किसी के साथ चलने की,
जवाब देंहटाएंहोती है हर पल चाह ,
शायद यही है जीवन जीने की राह"
साथ चले थे ,साथ चल रहे ,
जवाब देंहटाएंआगे भी साथ निभएगे ,
प्रगाढ़ बंध के कारणहें वे ,
यह कैसे भूल पाएंगे ,
bahut sundar panktiyan...
सीधे सीधे जीवन से जुड़ी रस कविता में नैराश्य कहीं नहीं दीखता। एक अदम्य जिजीविषा का भाव कविता में इस भाव की अभिव्यक्ति हुई है।
जवाब देंहटाएंदार्शनिकता का तत्व लिए एक बहुत ही भावपूर्ण एवं सार्थक रचना ! अति सुन्दर !
जवाब देंहटाएंअपना अस्तित्व कहां खोजते ,
जवाब देंहटाएंSHAYAD APNE DIL KE ANDAR......
DERI SE AANE KI MAFI CHAHTA HOON
जवाब देंहटाएं