विरही मन चारों ओर भटकता है ,
हर आहट पर चौंक जाता है ,
शायद वह लौट कर आयेगी ,
इंतज़ार नहीं करवायेगी |
मैं तपता सूरज कभी नहीं था ,
पर शांत कभी न रह पाया ,
मयंक सा शीतल न हो पाया ,
उसे कभी न समझ पाया |
मैं कैसे इतना निष्ठुर निकला ,
ऐसा क्या गलत किया मैंने ,
मुझे भूल गई बिसरा बैठी ,
कहीं और तो नेह न लगा बैठी ?
उसे मेरी याद नहीं आई ,
क्यों मुझे समझ नहीं पाई ,
घंटों मोबाईल पर बातें ,
अक्सर चैटिंग भी करती थी |
वह यह सब कैसे भूल गयी,
बीता कल पीछे छोड गयी ,
मैं दीपक सा जलता ही रहा ,
पर उसे कभी झुलसने न दिया |
मैं ही शायद गलत कहीं हूँ ,
कैसे यह अलगाव सहूँ ,
मन उद्वेलित होता जाये ,
विद्रूप से भरता जाये |
मन का तिलस्म टूट गया ,
वह बैचेनी से भटक रहा ,
मुझ में ही कुछ कमी रह गयी ,
अपना उसे बना न पाया ,
घायल पंछी सा तड़पता रहा ,
ठंडी बयार न दे पाया |
फिर भी हर क्षण ,
उसकी याद सताती है ,
वह चाहे कुछ भी सोचे ,
इंतज़ार अभी तक बाकी है |
आशा
अद्भुत!
जवाब देंहटाएंक्या प्रवाह,क्या कविताई!
कुंवर जी,
bahut sundar Asha ji...khud me hi kami reh gayi...thandi bayar na de paaya...bahut sundar...
जवाब देंहटाएंवाह ! वाह ! वाह ! बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ! अपने मन में सभी इस तरह झाँक लें तो ना तो कभी किसी का दिल टूटे और ना ही कभी कोई दीवार खड़ी हो ! सुन्दर भाव और सशक्त अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंDERI SE AANE KI MAFI CHAHTA HOON
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर .... एक एक पंक्तियों ने मन को छू लिया ...
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