09 जून, 2010

जड़ता मन की

बहुत खोया, थोड़ा पाया ,
खुद को बहुत अकेला पाया ,
सबने मुँह मोड़ लिया ,
नाता तुझसे तोड़ लिया ,
पीड़ा से दिल भर आया ,
फिर भी कोई प्रतिकार न किया ,
दरवाजा मन का बंद किया ,
बातें कई मन में आईं ,
पर अधरों तक आ कर लौट गईं ,
क्यूँ कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता नहीं है |
आँखें सूनी-सूनी हैं ,
कुछ बोल नहीं पातीं ,
मन के भेद खोल नहीं पाती,
क्यूँ कि उनमें नमी नहीं है |
तू नारी है तेरा अस्तित्व नहीं है ,
तेरी किसी को जरूरत नहीं है ,
क्यूँ कि तू जागृत नहीं है ,
सचेत नहीं है |
तू कितनी सक्षम है ,
इसका भी तुझे भान नहीं है ,
अपनी पहचान खो चुकी है ,
चमक दमक जो दिखती है ,
वह भी शायद खोखली है ,
सारी उम्र बीत गई ,
कुछ ही शेष रही है ,
वह भी बीत जायेगी ,
यही सोच तेरा ,
साथ समय के चलने नहीं देता ,
तुझे उभरने नहीं देता ,
सचेत होने नहीं देता ,
क्यूँ कि तुझे जैसे रखा ,
वैसे ही रही तू |
अहम् की तुष्टि में व्यस्त ,
कोई तुझे समझ नहीं पाता,
साथ तेरे चल नहीं पाता ,
क्यूँ कि वह सोचता है ,
दूसरों कि तरह सक्षम नहीं है ,
तू जागृत नहीं है |
यदि कोई तुझे समझाना चाहे ,
परिवर्तन तुझ में लाना चाहे ,
समयानुकूल बनाना चाहे ,
दरवाजे पर दस्तक दे भी कैसे ,
तेरे मन के दरवाजे पर ,
ताला लगा है ,
जिसकी चाबी न जाने कहाँ है |


आशा

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर !
    कविता को एक नए अंदाज़ में परिभाषित किया है आप ने !

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  2. वाह .....Mummy जी गज़ब का लिखतीं हैं आप .......!!

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  3. Very beautiful and thought provoking poem. Wow. Its a nice composition. Well written and well worded too.

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत खूबसूरत रचना....जड़ता का ताला ....

    मेरे ब्लॉग पर पढ़ें ...मौन का ताला

    http://gatika-sangeeta.blogspot.com/2010/06/blog-post_08.html

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