ना ही धोखा दिया ,
ना ही हम बेवफा हैं ,
हैं कुछ मजबूरियाँ ऐसी,
कि हम तुम से जुदा हैं |
समाज ने हम को ,
किसी तरह जीने न दिया ,
साथ रहने की चाहत को ,
समूल नष्ट किया ,
पर अब जो भी हो ,
समाज में परिवर्तन लाना होगा ,
रुढीवादी विचारधारा को ,
आईना दिखाना होगा ,
उसे जड़मूल से मिटाना होगा ,
आने वाली पीढ़ी भी वर्ना,
कुछ ना कर पायेगी,
इसी तरह यदि फँसी रही ,
कैसे आगे बढ़ पायेगी ,
हम तो बुज़दिल निकले ,
समाज से मोर्चा ले न सके ,
कुछ कारण ऐसे बने कि ,
अपनी बात पर टिक न सके ,
अब बेरंग ज़िंदगी जीते हैं ,
हर पल समाज को कोसते हैं ,
अपनी अगली पीढ़ी को ,
दूर ऐसे समाज से रखेंगे ,
समस्या तब कोई न होगी ,
स्वतंत्र विचारधारा होगी |
आशा
अगली पीढ़ी को समाज की रूढीवादी जकड़न से कैसे दूर रख पायेंगी जब खुद को नहीं रख पाईं ! मार्गदर्शन तो आपको ही करना होगा ! आत्मावलोकन का सुन्दर प्रयास है आपकी रचना ! बधाई !
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंदूर ऐसे समाज से रखेंगे ,
जवाब देंहटाएंसमस्या तब कोई न होगी ,
स्वतंत्र विचारधारा होगी |
फ़िर तो अगली पीढी तन्हा तन्हा होगी,
यूं रूठ गये समाज से तो,
बिन समाज़ की कैसी जीवनधारा होगी।
जो बीत गयी सो बात गयी -
जवाब देंहटाएंजो आज है वहीशाश्वत है -
जितनी ही गहरी जड़ें हों -
वृक्ष उतना ही मज़बूत होता है -
--------पर आपने वेदना बहुत सुन्दरता से लिखी है
-------बधाई
हर पीढ़ी पहली पीढ़ी से जुडी होती है और हर पीढ़ी पिछली पीढ़ी को रूढ़िवादी कहती है....
जवाब देंहटाएंYe Rudhiwadita......jayega ek din jarur........par kab??? ye pata nahi:(
जवाब देंहटाएंek achchhi rachna...!!
बहुत ही शानदार। आपको बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भाव युक्त कविता
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