07 जुलाई, 2010

है जिंदगी इक शमा की तरह

है जिंदगी इक शमा की तरह ,
जैसे जैसे आगे बढ़ती है ,
गति साँसों की धीमी होती है ,
शमा तो रात भर जलती है ,
सुबह होते ही गुल हो जाती है ,
धीरे धीरे जलते जलते ,
रोशनी कम होती जाती है ,
वह तो जलती है, पर हित के लिए ,
परवाने उस पर मर मिटते हैं ,
जब कोई लौ से टकराता है ,
उसे बुझाना चाहता है ,
शमा सतर्क हो जाती है ,
बुझने से बच जाती है ,
जीवन की चाह उसे,
गुल होने नहीं देती ,
जिंदगी भी कुछ ऐसी ही है ,
कई दौर से गुजरती है ,
कभी परोपकारी होती है ,
कभी स्वार्थी भी हो जाती है ,
बुझने के पहले ,
चंद लम्हों के लिए ,
चेतना लौट कर आती है ,
अंधकार फिर छा जाता है ,
सांसें वहीँ रुक जाती हैं ,
परोपकार साथ देता है ,
स्वार्थ यहीं रह जाता है ,
वैसे तो सच यह है ,
थोड़े दिन परोपकार याद रहते हें ,
फिर समय के साथ धुंधला जाते हें ,
मनुष्य तो खाली हाथ आता है ,
और खाली हाथ ही जाता है |
आशा

7 टिप्‍पणियां:

  1. ...मनुष्य तो खाली हाथ आता है ,
    और खाली हाथ ही जाता है |

    जिन्दगी इसी का नाम है ..

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  2. इन दिनों बड़ी दार्शनिकता से परिपूर्ण रचनायें लिख रही हैं ! अच्छी बात है ! लेकिन नकारात्मकता को हावी ना होने दीजियेगा ! दर्शन और आध्यात्म अपनी जगह ठीक हैं लेकिन जीवन को बेरंग और नीरस बनाने कि लिए नहीं ! सुन्दर पोस्ट ! साभार !

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  3. बहुत सुंदर -
    बधाई स्वीकारें

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  4. मनुष्य तो खाली हाथ आता है ,
    और खाली हाथ ही जाता है |
    --
    यही शाश्वत सत्य है!

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  5. सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत आभार.

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