है जिंदगी इक शमा की तरह ,
जैसे जैसे आगे बढ़ती है ,
गति साँसों की धीमी होती है ,
शमा तो रात भर जलती है ,
सुबह होते ही गुल हो जाती है ,
धीरे धीरे जलते जलते ,
रोशनी कम होती जाती है ,
वह तो जलती है, पर हित के लिए ,
परवाने उस पर मर मिटते हैं ,
जब कोई लौ से टकराता है ,
उसे बुझाना चाहता है ,
शमा सतर्क हो जाती है ,
बुझने से बच जाती है ,
जीवन की चाह उसे,
गुल होने नहीं देती ,
जिंदगी भी कुछ ऐसी ही है ,
कई दौर से गुजरती है ,
कभी परोपकारी होती है ,
कभी स्वार्थी भी हो जाती है ,
बुझने के पहले ,
चंद लम्हों के लिए ,
चेतना लौट कर आती है ,
अंधकार फिर छा जाता है ,
सांसें वहीँ रुक जाती हैं ,
परोपकार साथ देता है ,
स्वार्थ यहीं रह जाता है ,
वैसे तो सच यह है ,
थोड़े दिन परोपकार याद रहते हें ,
फिर समय के साथ धुंधला जाते हें ,
मनुष्य तो खाली हाथ आता है ,
और खाली हाथ ही जाता है |
आशा
बढ़िया प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएं...मनुष्य तो खाली हाथ आता है ,
जवाब देंहटाएंऔर खाली हाथ ही जाता है |
जिन्दगी इसी का नाम है ..
इन दिनों बड़ी दार्शनिकता से परिपूर्ण रचनायें लिख रही हैं ! अच्छी बात है ! लेकिन नकारात्मकता को हावी ना होने दीजियेगा ! दर्शन और आध्यात्म अपनी जगह ठीक हैं लेकिन जीवन को बेरंग और नीरस बनाने कि लिए नहीं ! सुन्दर पोस्ट ! साभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर -
जवाब देंहटाएंबधाई स्वीकारें
मनुष्य तो खाली हाथ आता है ,
जवाब देंहटाएंऔर खाली हाथ ही जाता है |
--
यही शाश्वत सत्य है!
kai dino se chutiya manaane nahihal mp gya tha...
जवाब देंहटाएंaap tak nahi pahuch saka...
सुंदर भावपूर्ण रचना के लिए बहुत बहुत आभार.
जवाब देंहटाएं