परम्पराओं में फंसा इंसान ,
रूढियों से जकड़ा इंसान ,
सदियों से इस मकडजाल में ,
चारों ओर से घिरा इंसान ,
निकलना भी चाहे ,
तो निकल नहीं पाता ,
ऊपर जब भी उठना चाहे ,
जाल से बाहर आना चाहे ,
फिर से उसी में फिसल जाता |
वह तो डरता है जाति बंधन से ,
जिसकी कोइ चर्चा नहीं ,
शास्त्रों और पुरानों में ,
समाज फिर भी जोड़ लेता इसे संस्कृति से ,
और देता है दुहाई परम्परा की ,
परिस्थितियाँ ऐसी निर्मित करता है ,
बेबस मनुष्य को कर देता है ,
सपनों का गला घुट जाता है ,
वह मन मार कर रह जाता है |
कई अनुभव जिंदगी के ,
बहुत कुछ सिखा जाते हें ,
जिसे विश्वास कर्ता पर हो ,
और आस्था उस पर ही हो ,
विश्वास स्वयम् जाग्रत होता है ,
तब सभी बंधनों से मुक्त वह ,
आगे को बढ़ता जाता है ,
झूठी परम्पराओं से ,
दुनिया के दिखावों से ,
छुटकारा पा जाता है ,
जीवन सुखी हो जाता है |
आशा
परम्पराओं में फंसा इंसान ,
जवाब देंहटाएंरूढियों से जकड़ा इंसान ,
सदियों से इस मकडजाल में ,
चारों ओर से घिरा इंसान ,
निकलना भी चाहे ,
तो निकल नहीं पाता
--
आपका मनोविश्लषण बहुत सारगर्भित है!
--
इस दार्शनिक रचना के लिए बधाई!
गहराई से लिखी गयी एक सुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंइसमें संदेह नहीं कि सारी दीवारें इंसान ही अपने चारों तरफ खडी करता है और फिर अपनी बेबसी पर सिर धुनता है जबकि इन दीवारों को गिराने की ताकत भी उसीके पास है ! सुन्दर पोस्ट ! आभार !
जवाब देंहटाएंbahut sundar rachna pasand aayi
जवाब देंहटाएंकई अनुभव जिंदगी के ,
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ सिखा जाते हें ,
जिसे विश्वास कर्ता पर हो ,
और आस्था उस पर ही हो ,
विश्वास स्वयम् जाग्रत होता है
jivan ki darshnikta sakaratmakta sabhi kuch samete huy achhi prastuti