25 जुलाई, 2010

ओस की एक बूंद


अरुणिमा से भरे नीले आकाश तले
हर श्रृंगार के पत्ते पर
नाचती ,थिरकती
एक चंचल चपला सी
या नन्हीं कलिका के सम्पुट सी
दिखती ओस की एक बूंद |
कभी लगती
एक महनत कश इंसान के
श्रम कण सी ,
कभी मां के माथे पर आए स्वेद सी
या किसी सुकुमारी के
मुंह पर ठहरे जल कण सी
सच्चाई हर कण में उसके
शुद्धता संचित पूंजी उसकी |
आदित्य की प्रथम किरण
जैसे ही पड़ती उस पर
लजा कर झुका लेती आँखें
छुईमुई सी सकुचा कर
जाने कहां छुप जाती है ,
वह नन्ही सी
ओस की एक बूंद
पत्ते पर भी,
अलग थलग सी रहती
पर अस्तित्व अपना
मिटने भी नहीं देती
है छोटी सी उम्र उसकी
पर जिंदगी अनमोल उसकी |
आशा

,

5 टिप्‍पणियां:

  1. प्रकृति की इस अनुपम सौगात को बहुत अच्छी तरह से परिभाषित किया है आपने ! एक प्यारी और सुन्दर रचना ! बधाई एवं शुभकामनाएं !

    जवाब देंहटाएं
  2. सच कहा……………।जीवन हो तो ऐसा……………छोटा हो मगर अनमोल हो……………।सार्थक संदेश देती रचना।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

    जवाब देंहटाएं
  4. इस बार के ( २७-०७-२०१० मंगलवार) साप्ताहिक चर्चा मंच पर आप विशेष रूप से आमंत्रित हैं ....आपकी उपस्थिति नयी उर्जा प्रदान करती है .....मुझे आपका इंतज़ार रहेगा....शुक्रिया

    आपकी चर्चा ..चर्चामंच पर है....

    जवाब देंहटाएं
  5. वह नन्ही सी ,ओस की एक बूंद, अलग थलग रहते हुए भी अपना अस्तित्व मितं नहीं देती ..
    जीवन क्षणिक ही सही , जी लिया जीवन भर जिसने ...वही ओस की बूँद है ...
    सुन्दर ...!

    जवाब देंहटाएं

Your reply here: