01 अगस्त, 2010

इतनी दूर चली गई हो


इतनी दूर चली गई हो
कैसे अपने पास बुलाऊं
आवाज तुम्हें दी जब भी
तुम तक पहुंच नहीं पाई
 पास तुम्हारे आना चाहता
पर रास्ता नजर नहीं आता
है एकाकी जीवन मेरा
सपनों में खोया रहता 
यादों में डूबा रहता 
आती हें याद वे मीठी बातें
कभी तकरार कभी झूठे वादे
मन अशांत हो जाता है
बीते कल में खो जाता है
सपनों में भी साथ तुम्हारा
कुछ भी भूलने नहीं देता
बस तुम्ही में खोया रहता
समझाऊं कैसे मन को
नियति का लेखा  है यही 
तुमसे दूर होना ही था
जिन पर अधिकार  चाहता था
वे भी अब अच्छे नहीं लगते
चमक दमक इस दुनिया की
नहीं रिझाती अब मुझको
 विरक्ति भी आती हैमन में
पर जो मेरा अपना था
 उसे कैसे भूल जाऊं
स्मृति पटल पर है जो अंकित 
 कभी मिट नहीं सकता
जगह उसकी कोई ले नहीं सकता
मेरा खालीपन भर नहीं सकता
मेरी जिंदगी का अब
यादें ही हैं  सहारा 
हैं मेरे जीने का बहाना 
आने वाली पीढ़ी
जब भी मेरी कहानी सुनेगी
मुझ जैसों को याद करेगी
अपनी भावनाओं को
एक नया रूप देगी |
आशा

5 टिप्‍पणियां:

  1. अपनों को खोने का दर्द ताउम्र रहता है...बस एक ही संतुष्टि होती है की हम भी एक न एक दिन वहीँ जायेंगे....
    जो अपने होते हैं वो जाकर भी कहाँ जाते हैं...
    हृदय को आंदोलित कर गयी आपकी कविता...
    आभार..

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  2. बस रह जाति हैं तो यादें ...खूबसूरती से लिखी है आपने अपनी भावना

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  3. सुन्दर रचना है!
    --
    मित्रता दिवस पर बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

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  4. यादो की पोटली बहुत सुंदर शब्दों के उद् गारों से खोली. बहुत सुंदर रचना.

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  5. बहुत सुन्दर रचना ! सत्य और भावना के द्वन्द को बहुत सुंदरता से अभिव्यक्त किया है ! यथार्थ का सामना सचमुच कष्टप्रद होता है लेकिन उससे मुख मोड़ा भी तो नहीं जा सकता ! बधाई एवं आभार !

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