जब अध्यनरत था ,
सफलता के शिखर पर ,
सदा रहता था ,
हर बार प्रथम आता था ,
कभी भाग्य आड़े,
नहीं आता था ,
बहुत लगन से यत्न किये ,
लिखित परीक्षा में सफल रहा ,
पर ना जाने क्यूँ ,
असफलता ही हाथ लगी ,
नौकरी ना मिल पाई ,
बार बार की असफलता ,
हीन भावना भरने लगी ,
लोगों के सामने आने से ,
घबराहट सी होने लगी ,
जब भी कोई मिलता था ,
पहला प्रश्न यही होता था ,
आजकल क्या कर रहे हो ,
मैं निरुत्तर हो जाता था ,
कभी विद्रोह भी करता था ,
तरह तरह की बातों से ,
मन में अकुलाहट होती थी ,
वेदना घर कर जाती थी ,
मन तार तार कर जाती ही ,
पानी बिना मछली की तरह ,
छटपटाहट होने लगती है ,
बेचैनी और बढ़ जाती है ,
यदि योग्यता नहीं होती ,
शायद दुःख भी नहीं होता ,
सब कुछ होते हुए भी ,
असफलता से गठबंधन ,
कुंठित करता जाता है ,
विष मन में घुलता जाता है ,
सब की हिकारत भरी दृष्टि,
मुझे अकेला कर जाती है ,
मैं क्या करूं, क्या है मेरे हाथ में ?
धन भी पास नहीं है ,
और ना कोई अनुभव है ,
जो भाग्य अजमाऊं व्यापार में ,
सोचता हूं सोचता ही रहता हूं ,
ना जाने क्या लिखा है प्रारब्ध में |
आशा
vah nice
जवाब देंहटाएंek berojagar ki vyatha ko bahut hi kariine se ukera hai.
जवाब देंहटाएंमैं क्या करूं, क्या है मेरे हाथ में ?
जवाब देंहटाएंधन भी पास नहीं है ,
और ना कोई अनुभव है ,
जो भाग्य अजमाऊं व्यापार में ,
सोचता हूं सोचता ही रहता हूं ,
ना जाने क्या लिखा है प्रारब्ध में
....ek berojkar ki manodasha ka aapne bahut hi maarmik chitran prastut kiya hai..
एक बेरोजगार की व्यथा को सही शब्दों में उकेरा है ...बहुत अच्छी रचना ..
जवाब देंहटाएंएक बेरोजगार मन की अकुलाहट को यथायोग्य शब्द देकर रचना को सुंदर रूप दिया है.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंहिन्दी का प्रचार राष्ट्रीयता का प्रचार है।
काव्य प्रयोजन (भाग-७)कला कला के लिए, राजभाषा हिन्दी पर, पधारें
ना जाने कितने व्यक्तियों को इस रचना में अपने मनोभावों का प्रतिबिम्ब दिखाई देगा ! यह अकुलाहट और वेदना समाज में तीव्रता से व्याप्त हो रही है ! आपने इसका बहुत सच्चाई के साथ बखान किया है ! बधाई !
जवाब देंहटाएंVery Nice
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