28 सितंबर, 2010

तुझे समझना सरल नहीं है

रहता नयनों का भाव ,
एकसा सदा,
ना होता परिवर्तन मुस्कान में ,
और ना कोई हलचल ,
भाव भंगिमा में ,
लगती है ऐसी ,
जैसे हो मूरत एलोरा की ,
स्पर्श का प्रसंग आते ही ,
पिघलने लगती है ,
मौम सी ,
प्रस्तर प्रतिमा कहीं,
विलुप्त हो जाती है ,
समक्ष दिखाई देती है ,
चंचल चपला सी ,
हो जाती है ,
मोम की गुड़िया सी ,
कितना अंतर दिखता है ,
तेरे दौनों रूपों में ,
तुझे समझना सरल नहीं है ,
मनोभावों का आकलन,
बहुत कठिन है,
क्या सोचती है ?
क्या चाहती है ?
बस तू ही जानती है ,
है इतना अवश्य ,
न्रत्य में जान डाल देती है ,

आशा

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत प्यारी रचना है ! आपको बहुत बहुत बधाई !

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  2. aashaa aanti aapki is rchnaa men aapka anubhv shaamil he kisi ko bhi sharirik bhaasha se hi pkd lene ki jo shmtaa aap men he usi ki trz pr yeh kaamyaa rchna he bhayi ho. akhtar khan akela kota rajsthan.

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  3. चित्रण बहुत सुन्दर बन पड़ा है ! बहुत सुन्दर प्रस्तुति ! बधाई एवं शुभकामनाएं !

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  4. बहुत अच्छी कविता...मानव के मनोभावों को टटोलती सशक्त रचना

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  5. मन के भाव पढ़ना इतना आसान नही होता ....
    सुंदर चित्रण है रचना का ....

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  6. बहुत ही भावमय प्रस्तुति!
    ---- ---- ----
    ये आचमन है, गरल नही है।
    समझना इसको सरल नही है!
    इसे पचाने में युग लगेंगे-
    ये हिम है लेकिन तरल नही है!!
    --

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