29 अक्टूबर, 2010

तुम हो एक सौदागर


तुम हो एक सौदागर
लुभाते अपने व्यक्तित्व से
अनजाने में कभी कभी
बातों को हवा देते 
भावनाओं को उभार कर
मन मस्तिष्क पर छाते गए
फिर कहीं चले गए
दर्द अजीब सा दे गए
नाम ह्रदय पर लिख गए |
यही सब यदि करना था
भुलाने की कोई विधि
तो बता कर जाते
या विस्मृति की
दवा ही दे जाते |
कभी किसी बात को
अधिक ही उछाल देते थे
पर किसी ने न जाना
कि तुम बेवफा थे |
तस्वीर जो दी तुमने
चैन से जीने नहीं देती
बहुत बेचैन करती है
अतीत याद दिलाती है |
लोग तुमसे जोड़ कर
मेरा नाम तक लेने लगे
जाने क्यूं ऐसा कहने लगे |
याद तो उन्हें किया जाता है
जो प्यार करते हों
या इस दुनिया में
अपना नाम कर गए हों |
जी चाहता है
कहीं तुम मिल जाओ
मेरी भावनाओं को
फिर से रंग जाओ
इन्तजार न रहे
ऐसा कुछ कर जाओ |
कहां तक सोचूं तुम्हारे लिए
कई ऋतुएं बीत गईं
अब तो लगता है
हर मौसम भी हरजाई |
आशा

5 टिप्‍पणियां:

  1. सम्वेदनायें भी कागज पर उतर सकती हैं... वाकई.

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  2. गद्य और पद्य दोनों का चित्रण बहुत ही उम्दा है .........

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  3. सौदागर निर्मोही ही होता है ! वह वहीं ठहरता है जहां उसे अपना फायदा दिखाई देता है ! भवनाओं का उसके पास कोई मोल नहीं होता ! सार्थक रचना और शानदार लेखन ! अति सुन्दर !

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  4. अच्छी रचना ...सौदागर तो केवल अपना ही फायदा सोचेगा न ...

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