30 नवंबर, 2010

कोई नहीं बचा इससे


जाति प्रथा का जन्म हुआ था
कार्य विभाजन के आधार पर
संकुचित विचार धारा ने
घेरा इसे कालान्तर में
शहरों में दिखा कम प्रभाव
पर गाँवों में विकृत रूप हुआ
जो भी वहाँ दिखता है
मन उद्वेलित कर देता है
ऊँच नीच और छुआ छूत
हैं अनन्य हिस्से इसके
दुष्परिणाम सामने दिखते
कोई नहीं बचा इससे
आपस में बैर रखते हैं
मनमुटाव होता रहता है
असहनशील हैं इतने कि
रक्तपात से नहीं हिचकते
बलवती बदले की भावना
जब भी हो जाती है 
हो जाते हैं आक्रामक
सहानुभूति जाति की पा कर
और उग्र हो जाते हैं
है स्वभाव मानव का ऐसा
बदला पूरा ना हो जब तक
चैन उसे नहीं आता
अधिक हिंसक होता जाता
लूटपाट और डकैती
नियति बनती जाने कितनों की
इनसे मुक्ति यदि ना मिलती
चम्बल का बीहड़ बुलाता
रोज कई असहिष्णु  लेते जन्म 
आपस में उलझते रहते 
जाति प्रथा के तीखे तेवर
देते  हवा उपजते वैमनस्य को
 मानव स्वभाव की उपज
और जातिवाद की तंग गलियाँ 
कितना अहित करती हैं
 क्या उचित इन सब का होना
शांत भाव से जीने के लिए
मनुज स्वभाव बदलने के लिए
है आवश्यक इनसे बचना
और आत्मनियंत्रित होना |


आशा

5 टिप्‍पणियां:

  1. जरूरी तो है पर आसान नहीं .. सदियों से बनायीं कुरीतियाँ आसानी से नहीं जाती ..

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  2. sach mein behad dukhdayee hai yah jaatipratha..
    gaon kee baat to alag Nagon, mahanagaron mein bhi sareaam jaati ka bhedbhav dekhta hai..
    kanoon bane to hain lekin kisse ek do jun ke riti je liye bhatkane wala aadmi kissse kahega...
    bahut saarthak rachna...aabhar

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  3. जाति प्रथा का जितना विकृत रूप आज दिखाई देता है उतना तो शायद पहले भी कभी नहीं था ! इसने हमारे समाज को ना केवल कई टुकड़ों में बांटा है बल्कि इसे अनियंत्रित और अनुशासनहीन भी बना दिया है इसीलिये हर जगह अराजकता और भय का वातावरण है ! जन जागृति के लिये चेताती एक सार्थक रचना ! बधाई एवं शुभकामनाएं !

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  4. रूढ़ियाँ मिट रही हैं , मगर अभी काम बहुत बाकी है !

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  5. कविता रावत जी और साधना वैद जी की बातों से मैं भी सहमत हूँ.आज जब सब संचार और तकनीकी के क्षेत्र में दूरियां सिमटती जा रही हैं तो दिलों की दूरियां भी मिटनी ही चाहिए.

    सादर

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