29 नवंबर, 2010

ठिठुरन


कोहरे की घनी चादर 
यह ठिठुरन और
ठंडी हवा की चुभन
हम महसूस करते हैं
सब नहीं
सुबह होते हुए भी
रात के अँधेरे का अहसास
हमें होता है
सब को नहीं
आगे कदम बढ़ते जाते हैं
सड़क किनारे अलाव जलाये
कुछ बच्चे बैठे 
कदम ठिठक जाते हैं
आँखों के इशारे
उन्हें मौन निमंत्रण देते 
इस मौसम से हो कर अनजान
तुम क्यूँ बैठे हो यहाँ
ऐसा क्या खाते हो
जो इसे सहन कर पाते हो
उत्तर बहुत स्पष्ट था
रूखी रोटी और नमक मिर्च
प्रगतिशील देश के
आने वाले कर्णधार
ये नौनिहाल
क्या कल तक जी पायेंगे
दूसरा सबेरा देख पायेंगे
मन में यह विचार उठा
पर यह मेरा भ्रम था
ऐसा कुछ भी नहीं हुआ 
जैसा मैंने सोचा था
अगले दिन भी
कुछ देर से ही सही
कदम उस ओर ही बढ़े
सब को सुबह चहकते पाया
लगा मौसम से सामंजस्य
उन्होंने कर लिया है
धीरे से एक उत्तर भी उछाला
कैसा मौसम कैसी ठिठुरन
अभी काम पर जाना है
सुन कर यह उत्तर
खुद को अपाहिज सा पाया
असहज सा पाया
इतने सारे गर्म कपड़ों से
तन दाब ढाँक बाहर निकले
फिर भी ठण्ड से
स्वयं को ठिठुरते पाया |


आशा

8 टिप्‍पणियां:

  1. जाड़ा वाक़ई शुरू हो चुका है.आपकी रचना सामयिक और अच्छी है.

    जवाब देंहटाएं
  2. यही तो यथार्थ है.
    हम सब कुछ देखते हैं पर कुछ कर नहीं पाते.

    सादर

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय आशा माँ
    नमस्कार !
    अति प्रशंसनीय एवं मनमोहक कविता
    कविता मन को छू गयी।
    सर्दी के आगमन का अहसास जिस तरह से इस कविता ने कराया
    उसका जवाब नही
    सुन्दर कविता के लिए बधाई
    "माफ़ी"--बहुत दिनों से आपकी पोस्ट न पढ पाने के लिए ...

    जवाब देंहटाएं
  4. यथार्थ को कहती अच्छी रचना ...आपकी संवेदनशीलता का पता चलता है ..

    जवाब देंहटाएं
  5. :( कड़वी सच्चाई...
    क्या कहूँ

    जवाब देंहटाएं
  6. यथार्थ से परिचय करते ठिठुरने वाली रचना.. बहुत बढ़िया...

    जवाब देंहटाएं
  7. हमारे देश में जाड़ा मनाना भी एक तरह की विलासिता है जहां सैकड़ों लोग सड़कों और फुटपाथों पर खुले आकाश के नीचे नाम मात्र के कपड़ों में कड़कड़ाती सर्दी में रातें गुजारने के लिये विवश हैं ! ऐसे में अपने तन पर चढ़ा एक स्वेटर भी शर्मिंदगी का एहसास कराता है ! बहुत मर्मस्पर्शी रचना ! बहुत बढ़िया और विचारोत्तेजक !

    जवाब देंहटाएं

Your reply here: