05 नवंबर, 2010

मन खिन्न हुआ








                                                               मन खिन्न हुआ दिल टूट गया
थी  जो अपेक्षा   उस पर खरे न उतरे 
जाने कितने अहसान किये
पर जताना कभी नहीं भूले
संख्या इतनी बढ़ी कि
 भार सहन ना हो पाया
बेरंग ज़िंदगी का एक और रूप नज़र आया
कहने को  सब कुछ है पर कहीं न कहीं अंतर है
छोटी-छोटी बातों से
 किरच-किरच हो दिल बिखर गया
गहरे सोच में डूब गया
 वेदना ने दिये ज़ख्म ऐसे
नासूर बनते देर न लगी
अब कोई दवा काम नहीं करती
अश्रु भी सूख गये अब तो
पर आँखे विश्राम नहीं करतीं 
वेदना इतनी गहरी कि
रूठा मन शांत नहीं होता
है इन्तजार उस परम सत्य का
जब काया पञ्च तत्व में विलीन होगी
झूठी माया व्यर्थ का मोह
 सभी से मुक्ति मिल पायेगी
वेदना तभी समाप्त हो पाएगी |

                                                                           आशा

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