05 सितंबर, 2011

हूँ परेशान



न जाने कैसी कहानी थी

कुछ सोचा मनन किया |

वह मन की बात न कह पाई

बस यही गुनाह किया |

यही सोच कर हूँ परेशान

कि ऐसा कैसे किया |

जंगल की आग का अनुभव

उसने कैसे न किया |

हो कर चंचल प्याला छलकता

वह मुखर बनी रहती |

तब कभी उदास न रह पाती

मन पर बोझ न रखती |

कोमल भावनाओं से कभी

यूं न खेलती रहती |
अपने अछूते विचारों पर

सदा विहसती रहती |

10 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर रचना ! लेकिन परेशानी का सबब समझ में नहीं आया ! किसने कौन सी कहानी सुना दी ? कुछ स्पष्टीकरण माँगती सी कविता है !

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  2. वह मन की बात न कह पाई
    बस यही गुनाह किया

    ---बस यही गुनाह तो तकलीफदेह हो चलता है...उम्दा रचना.

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  3. आशाजी, शायद आपने ब्‍लॉग के लिए ज़रूरी चीजें अभी तक नहीं देखीं। यहाँ आपके काम की बहुत सारी चीजें हैं।

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