18 नवंबर, 2011

एक मोहरा


प्रेमी न थे वे तो तुम्हारे
भरम में फंसते गए
नादाँ थे जो जान न पाए
गर्त में धंसते गए |
मार्ग न पाया उचित जब तक
भटकाव सहते गए
साथी न पाया अर्श तक जब
फलसफे बनते गए |
ना बेवफाई की तुम्हारी
आहट तक उन्हें मिली
प्यार में धोखा खाते गए
रुसवाई उन्हें मिली |
यूँ तो न थे वे प्रिय तुम्हें भी
मानते यह क्यूँ नहीं
वे थे तुम्हारा एक मोहरा
स्वीकारते क्यूँ नहीं |

आशा


10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी कविता,अच्छा सार लिए ।
    बधाई !

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  2. यूँ तो न थे वे प्रिय तुम्हें भी
    मानते यह क्यूँ नहीं
    वे थे तुम्हारा एक मोहरा
    स्वीकारते क्यूँ नहीं |

    बहुत खूब..सुन्दर रचना ..
    मेरी नई पोस्ट के लिए
    आपका हार्दिक स्वागत है !

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  3. pyaar hone ka bhram par ek chalava,dhokha...bahut kuch kah rahi hai kavita.bahut achcha likha Aasha ji mere yahan bhi aaiye.

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  4. राजेश कुमारी जी की बातों से पूरी तरह सहमत हूँ आशा जी :)बहुत कुछ कह रही है आपकी यह कविता .... आभार समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है

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  5. बहुत ही गहन अभिवयक्ति रचना.....

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  6. गहरे भाव।
    सुंदर प्रस्‍तुति।

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  7. बड़ी गहरी बात कह डाली आज तो ! यथार्थ में अधिकतर प्रेम कहानियों का परिणाम यही निकलता है जिसके अंत में हमेशा मन में ना खत्म होने वाली एक टीस रह जाती है और हाथ खाली हो जाते हैं ! सुन्दर रचना !

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  8. वाह ... गहरे भाव लिए सुन्दर रचना ...

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