20 नवंबर, 2011

कहीं संकेत तो नहीं


मन में दबी आग
जब भी धधकती है
बाहर निकलती है
थर्रा देती सारी कायनात |
मन ही मन जलता आया
सारा अवसाद छिपाया
सारी सीमा पार हों गयी
सहनशक्ति जबाब दे गयी |
विस्फोट हुआ ज्वाला निकली
धुंआ उठा चिंगारी उड़ीं
हाथ किसी ने नहीं बढाया
साथ भी नहीं निभाया |
समझा गया हूँ क्रोधित
इसी से आग उगल रहा
पर कारण कोइ न जान पाया
मन मेरा शांत न कर पाया |
बढ़ने लगी आक्रामकता
तब भयभीत हो राह बदली
बरबादी के कहर से
स्वयम् भी न बच पाया |
बढ़ी विकलता ,आह निकली
बहने लगी अश्रु धारा
पर शांत भाव आते ही
ज़मने लगी , बहना तक भूली |
फिर जीवन सामान्य हो गया
कुछ भी विघटित नहीं हुआ
है यह कैसी विडंबना
सवाल सहनशीलता पर उठा |
बार बार आग उगलना
फिर खुद ही शांत होना
कहीं यह संकेत तो नहीं
सब कुछ समाप्त होने का |
आशा

13 टिप्‍पणियां:

  1. मन की तड़पन ..और हलचल को महसूस किया ...उस प्यार के वेग को ..जो अधूरा रह गया ...मन का तूफ़ान ...मन के भीतर ...उफ़,

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  2. फिर जीवन सामान्य हो गया
    कुछ भी विघटित नहीं हुआ
    है यह कैसी विडंबना
    सवाल सहनशीलता पर उठा |

    हर पल यूँ ही खुद से लड़ना पड़ता है ... विचारणीय रचना

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  3. मनोभावों का सुंदर चित्रण।

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  4. जी नहीं यह संकेत है और अधिक सृजनशील होने का ! ज्वालामुखी का लावा जिस धरा पर जम जाता है वह और अधिक उर्वरा और समृद्ध हो जाती है ! उसी तरह इंसान भी और अधिक संवेदनशील हो जाता है और उसकी रचना में निखार आ जाता है ! सुन्दर रचना !

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  5. बेहतरीन शब्द चयनित कविता ह्रिदय की वेद्ना मुखरित करती पन्क्तियां बधाई आशा जी.

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  6. अन्तर्मन विचारों से जब खेलता है तो ऐसी रचनाएँ प्रादुर्भाव पाती हैं।

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  7. अंतर्मन के विचारों को सहज अभिव्यक्ति दी है आपने ...

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  8. सुन्दर बुनावट/सम्प्रेषण...
    वाह! बहुत बढ़िया...
    सादर...

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  9. आशा जी नमस्कार, सुन्दर इन दूरियो का कारण हमारे बीच का अहम भी है जो प्रेम पर भी भारी पड़ता है।

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