02 दिसंबर, 2011

कोइ वर्जना नहीं

मन बंजारा भटक रहा
अनजाने में जाने कहाँ
बिना घर द्वार
जीवन से हो कर बेजार |
राहें जानता नहीं
है शहर से अनजान
पहचानता नहीं
अपने ही साए को
अनजान निगाहों को |
आगे बढ़ता बिना रुके
यह अलगाव
यह भटकाव
ले जाएगा कहाँ उसे |
चाहता नहीं कोइ रोके टोके
जाने का कारण पूंछे
खोना ना चाहे आजादी
वर्जनाओं का नहीं आदी |
है स्वतंत्र स्वच्छंद
चाहता नहीं कोइ बंधन
बस यूं ही विचरण कर
अपने अस्तित्व पर ही
करता प्रश्न |
आशा

11 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा शनिवार के चर्चा मंच पर भी की गई है! चर्चा में शामिल होकर चर्चा मंच को समृध्‍द बनाएं....

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  2. कोमल भावो की बेहतरीन अभिवयक्ति.....

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  3. kya pata subeh ke nikle panchhi ki tarah shaam hote hi laut aaye ye bhi apne hi kuteer me.

    sunder abhivyakti.

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  4. मनुष्य की यायावरी प्रवृत्ति को बहुत सहजता से अभिव्यक्त कर दिया आपने इस रचना में ! सुन्दर प्रस्तुति के लिये बधाई एवं शुभकामनायें !

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  5. सुन्दर रचना , सुन्दर भावाभिव्यक्ति , शुभकामनाएं.

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  6. बहत खूब...बेहतरीन अभिव्यक्ति..

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