मन बंजारा भटक रहा
अनजाने में जाने कहाँ
बिना घर द्वार
जीवन से हो कर बेजार |
राहें जानता नहीं
है शहर से अनजान
पहचानता नहीं
अपने ही साए को
अनजान निगाहों को |
आगे बढ़ता बिना रुके
यह अलगाव
यह भटकाव
ले जाएगा कहाँ उसे |
चाहता नहीं कोइ रोके टोके
जाने का कारण पूंछे
खोना ना चाहे आजादी
वर्जनाओं का नहीं आदी |
है स्वतंत्र स्वच्छंद
चाहता नहीं कोइ बंधन
बस यूं ही विचरण कर
अपने अस्तित्व पर ही
करता प्रश्न |
आशा
अनजाने में जाने कहाँ
बिना घर द्वार
जीवन से हो कर बेजार |
राहें जानता नहीं
है शहर से अनजान
पहचानता नहीं
अपने ही साए को
अनजान निगाहों को |
आगे बढ़ता बिना रुके
यह अलगाव
यह भटकाव
ले जाएगा कहाँ उसे |
चाहता नहीं कोइ रोके टोके
जाने का कारण पूंछे
खोना ना चाहे आजादी
वर्जनाओं का नहीं आदी |
है स्वतंत्र स्वच्छंद
चाहता नहीं कोइ बंधन
बस यूं ही विचरण कर
अपने अस्तित्व पर ही
करता प्रश्न |
आशा
बेहतरीन लिखा है आंटी।
जवाब देंहटाएंसादर
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा शनिवार के चर्चा मंच पर भी की गई है! चर्चा में शामिल होकर चर्चा मंच को समृध्द बनाएं....
जवाब देंहटाएंकोमल भावो की बेहतरीन अभिवयक्ति.....
जवाब देंहटाएंkya pata subeh ke nikle panchhi ki tarah shaam hote hi laut aaye ye bhi apne hi kuteer me.
जवाब देंहटाएंsunder abhivyakti.
मनुष्य की यायावरी प्रवृत्ति को बहुत सहजता से अभिव्यक्त कर दिया आपने इस रचना में ! सुन्दर प्रस्तुति के लिये बधाई एवं शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना , सुन्दर भावाभिव्यक्ति , शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंबढ़िया भावावियक्ति....
जवाब देंहटाएंसादर....
behtreen abhivyakti.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर एवं लयबद्ध !
जवाब देंहटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
बहत खूब...बेहतरीन अभिव्यक्ति..
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