12 जनवरी, 2012

मृग तृष्णा

जल देख आकृष्ट हुआ 
घंटों  बैठ अपलक निहारा 
आसपास  था जल ही जल
प्यास जगी बढ़ने लगी |
खारा पानी इतना कि 
बूँद  बूँद जल को तरसा  
गला  तर न कर पाया 
प्यासा था प्यासा ही रहा |
तेरा प्यार भी सागर जल सा 
मन  ने जिसे पाना चाहा 
पर  जब भी चाहत उभरी 
 खारा जल ही मिल पाया |
रही  मन की प्यास अधूरी 
मृग  तृष्णा सी बढती गयी 
जिस जल के पीछे भागा 
मृग  मारीचिका ही नजर आई |
सागर  सी गहराई प्यार की
आस अधूरी दीदार की 
वर्षों बीत गए
नजरें टिकाए द्वार पर|
मुश्किल से कटता हर पल
तेरी राह देखने  में
आगे  होगा क्या  नहीं जानता 
फिर  भी बाकी है अभी आस
 और प्यास तुझे पाने की |
आशा 


















13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर भाव पूर्ण रचना ...

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  2. बहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......

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  3. बहुत ही अच्छी.... जबरदस्त अभिवयक्ति.....वाह!

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  4. खूब-सूरत प्रस्तुति |
    बहुत-बहुत बधाई ||

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  5. बेहद गहरी सोच ....जल के करीब रह कर भी प्यास नहीं कभी खत्म नहीं होती

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  6. बहुत सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुती ! अक्सर मन ऐसी ही उलझनों में फँस जाता है और मृगतृष्णा की तरह प्यास उसे छलती ही रहती है ! सुन्दर अभिव्यक्ति !

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  7. सुंदर रचना। बहुत-बहुत बधाई ||

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  8. अच्छी प्रस्तुति .. हम मृगतृष्णा के पीछे ही तो भागते रहते हैं ..

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  9. फिर भी बाकी है अभी आस तुझे पाने की वाहा !!! बहुत खूब लिखा है आपने आशा जी आखिर उम्मीद पर दुनिया कायम है समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है।

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