घंटों बैठ अपलक निहारा
आसपास था जल ही जल
प्यास जगी बढ़ने लगी |
खारा पानी इतना कि
बूँद बूँद जल को तरसा
गला तर न कर पाया
प्यासा था प्यासा ही रहा |
तेरा प्यार भी सागर जल सा
मन ने जिसे पाना चाहा
पर जब भी चाहत उभरी
खारा जल ही मिल पाया |
रही मन की प्यास अधूरी
मृग तृष्णा सी बढती गयी
जिस जल के पीछे भागा
मृग मारीचिका ही नजर आई |
सागर सी गहराई प्यार की
आस अधूरी दीदार की
वर्षों बीत गए
नजरें टिकाए द्वार पर|
नजरें टिकाए द्वार पर|
मुश्किल से कटता हर पल
तेरी राह देखने में
तेरी राह देखने में
आगे होगा क्या नहीं जानता
फिर भी बाकी है अभी आस
और प्यास तुझे पाने की |
आशा
बहुत सुंदर भाव पूर्ण रचना ...
जवाब देंहटाएंगहरे भाव लिए सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और उत्तम भाव लिए हुए.... खूबसूरत रचना......
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी.... जबरदस्त अभिवयक्ति.....वाह!
जवाब देंहटाएंsundar bhav aur pyaari rachna
जवाब देंहटाएंखूब-सूरत प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत बधाई ||
बेहद गहरी सोच ....जल के करीब रह कर भी प्यास नहीं कभी खत्म नहीं होती
जवाब देंहटाएंगहरे भाव लिए सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुती ! अक्सर मन ऐसी ही उलझनों में फँस जाता है और मृगतृष्णा की तरह प्यास उसे छलती ही रहती है ! सुन्दर अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना। बहुत-बहुत बधाई ||
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति .. हम मृगतृष्णा के पीछे ही तो भागते रहते हैं ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंसादर.
फिर भी बाकी है अभी आस तुझे पाने की वाहा !!! बहुत खूब लिखा है आपने आशा जी आखिर उम्मीद पर दुनिया कायम है समय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है।
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