04 मई, 2012

बंधन

 
 ये  घुंघरू बंधन  पैरों के
 ना पहले बजे ना आज
डाले गए  पायलों में
फिर भी बेआवाज
हें ना जाने क्यूँ मौन ?
शायद इसलिए कि
पहनने वाली भी रहती मौन
भाग्य सराहा जाता उसका
होती चर्चा रूप की
सजे पैर पायलों से
यूँ तो आकर्षित करते
घुँघरू तब भी रहते मौन
कोई नहीं जानता
मुराद उसके मन की
रहती सदा अपूर्ण
निराशा ने डेरा डाला
उदासी से पड़ा पाला
 है परकटे पक्षी सी
कैद चार दीवारी में
उड़ नहीं सकती
 है परतंत्र  इतनी
मन की कह नहीं सकती
सोच नहीं पाती
 घर के बाहर भी
 है एक और  जहाँ
ग़मों के अलावा भी
 हैं खुशियाँ वहाँ
 प्रारब्ध का यह खेल कैसा
या फल अनजाने कर्मों का
सब को  सहन करना
आदत सी हो गयी है
ओढ़े आवरण दिखावे का
दिन तो कट ही जाते हैं
है यह कैसा बंधन
लोग ऐसे भी जी लेते हैं |
asha 



24 टिप्‍पणियां:

  1. बंधन काटे ना कटे, कट जाए दिन-रैन ।

    विकट निराशा से भरे, आशा दीदी बैन ।

    आशा दीदी बैन, चैन मन को ना आये ।

    न्योछावर सर्वस्व, बड़ी बगिया महकाए ।

    फूलों को अवलोक, लोक में खुशबू तेरी ।

    नारी मत कर शोक, मान ले मैया मेरी ।।

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  2. है परतंत्र इतनी
    मन की कह नहीं सकती
    सोच नहीं पाती...................

    बहुत गहन अभिव्यक्ति आशा जी...

    सादर.

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  3. है परकटे पक्षी सी
    कैद चार दीवारी में
    उड़ नहीं सकती
    है परतंत्र इतनी
    मन की कह नहीं सकती ,,,

    बहुत सुंदर सार्थक गहन अभिव्यक्ति // बेहतरीन रचना //

    MY RECENT POST ....काव्यान्जलि ....:ऐसे रात गुजारी हमने.....

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  4. प्रारब्ध का यह खेल कैसा
    या फल अनजाने कर्मों का

    यही बात तो समझ नहीं आती...
    सुन्दर अभिव्यक्ति

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    उत्तर
    1. रश्मी जी ,पहली बार आपको इस ब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद |टिप्पणी लेखन को बल देती है |इसी प्रकार अपना स्नेह बनाए रखें |
      आशा

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  5. नारी मन की पीड़ा, व्याकुलता दर्शाती रचना... गहन भाव... सादर

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  6. उत्तर
    1. आपका कमेन्ट अच्छा लगा |ऐसा ही स्नेह बनाए रखें |

      हटाएं
  7. गहरे भावो की अभिवयक्ति......

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  8. नारी जीवन की विसंगतियों का सटीक एवं सार्थक चित्रण किया है ! सुन्दर रचना !

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