शासन की डोर न सम्हाल
सके
सारे यत्न असफल रहे
मोह न छूटा कुर्सी
का
क्यूंकि लोग सलाम कर रहे |
ना रुकी मंहगाई
ना ही आगे रुक पाएगी
अर्थ शास्त्र के
नियम भी
सारे ताख में रख दिए |
अर्थशास्त्री बने
रहने की लालसा
फिर भी बनी रही
जहाँ भी कोशिश की
पूरी तरह विफल रहे |
सत्ता से चिपके रहने
की
भूख फिर भी न मिटी
कुर्सी से चिपके रहे
बस नेता हो कर रह गए
|
आशा
वाह...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया आशा जी..
आज की रचना कुछ अलग रंग में...
सादर
अनु
वाह: आशाजी नेताओ को अच्छे आड़े हाथों लिया..सटीक प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंनेता गण लगने लगे, जैसे बड़ा गिरोह
जवाब देंहटाएंसभी लोग करने लगे, कुर्सी का है मोह,
कुर्सी का है मोह ,कर रहे आपस में मेल
चुनाव के लिए हो रहा, आरक्षण का खेल,
जनता गूंगी हो गई, है संसद भी मौन
अंधी है सरकार भी, देखन वाला कौन,
RECENT POST...: दोहे,,,,
bahut khoob .sangrahniy v sarthak prastuti.धिक्कार तुम्हे है तब मानव ||
जवाब देंहटाएंमोह ना छूटा कुर्सी का ...
जवाब देंहटाएंसतीश जी जानना चाहती हूँ कि आप मेरी मम्मी ज्ञानवती सक्सेना 'किरण' को कैसे जानते हैं |टिप्पणी के लिए आभार |
हटाएंआशा
यही तो विडम्बना है कि शासन सम्हाल पायें या ना सम्हाल पायें कुर्सी से चिपके ही रहना चाहते हैं ! बहुत बढ़िया सामयिक रचना !
जवाब देंहटाएंसच कहा आपने...
जवाब देंहटाएंye hi to ho raha hai aaj kal......
जवाब देंहटाएंsahi likha hai aapne....
बेहतरीन और सार्थक रचना....
जवाब देंहटाएं:-)
नेता को कुर्सी का मोह न हो तो वह नेता क्या? बहुत सार्थक प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंयही तो विडंबना है हमारे देश की कुर्सी से मानो फेविकोल से चिपक जाते हैं लोग कुछ भी कहें कान आँख मुह सब बंद करके कुर्सी को पकड़ कर बैठ गए हैं बहुत अच्छा लिखा है आशा जी
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब ...सटीक
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