28 अप्रैल, 2013

एक बुलबुला

शाम ढले विचरण करता 
जा पहुंचा सरिता तट पर 
वृक्षों की छाँव तले
बहती जल की धारा 
था मौसम बड़ा सुहाना 
मन भी उससे हारा 
वहीं रुका और बैठ गया 
जल में पैर डाल अपने 
अस्ताचल को जाता सूरज 
 अटखेलियाँ जल से  करता 
दृश्य ने ऐसा बांधा 
उठने का मन न हुआ 
सहसा ठहरी दृष्टि 
जल में उठता बुलबुला देख 
पहले था वह नन्हा सा 
फिर बड़ा हुआ और फूट गया 
वह देखता ही रह गया 
वे एक से अनेक हुए 
बहाव के साथ बहे 
थोड़ी दूर  तक गए 
फिर विलीन जल में हुए 
विचारों ने ली करवट 
सिलसिला शुरू हुआ 
जीवन के बिभिन्न पहलुओं  की
सतत चलती प्रक्रिया का 
उसके समापन का 
सृष्टि का यही तो क्रम है 
क्या सजीव क्या निर्जीव में 
उसे लगा खुद का जीवन 
पानी के एक  बुलबुले सा |
आशा





12 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन बुलबुला ही है ...
    कब टूट जाता है पता नहीं चलता ... आध्यात्म लिए सुन्दर भावपूर्ण रचना ..

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  2. नमस्कार
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (29-04-2013) के चर्चा मंच अपनी प्रतिक्रिया के लिए पधारें
    सूचनार्थ

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  3. आपने लिखा....हमने पढ़ा
    और लोग भी पढ़ें;
    इसलिए कल 29/04/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
    धन्यवाद!

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  4. सांसारिक वस्तुओं की नश्वरता से अवगत कराती बेहतरीन रचना ! यह प्रकृति का अपरिवर्तनशील नियम है जिसे हमें ज्यों का त्यों आत्मसात करना ही होगा ! बढ़िया प्रस्तुति !

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  5. सृष्टि का यही सिलसिला
    जीवन पानी का बुलबुला......गूढ़ प्रस्‍त‍ुति।

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  6. जीवन बुलबुला ही है बहुत सुन्दर प्रस्तुति !

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  7. बहुत खूब लिखा आपने | बहुत ही सुन्दर शब्दावली द्वारा विचारों को अभिव्यक्त किया | पढ़कर अच्छा लगा | सादर

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  8. जीवन दर्शन का बहुत सुन्दर और सहज चित्रण....

    सादर
    अनु

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