03 जुलाई, 2013

पर मनुष्य बदलता जाता



श्वेत अश्वों के रथ पर सवार
सूर्य निरंतर आता जाता
अपने पथ से कभी न भटकता
प्रातः रश्मियों से स्वागत
सांझ ढले अस्ताचल जाना
यही क्रम  अनवरत चलता
चन्दा की चौदह कलाएं
बिखेरतीं अपनी अदाएं
कभी चांदनी रात होती
 कभी रात अंधेरी आती
ज्योत्सना इतनी स्निग्ध होती
 कोई सानी नहीं जिसकी
यही क्रम सदा चलता रहता
कोइ परिवर्तन नहीं होता
दाग भी दिखाई देता
चाँद  में फिर भी
वह उसे नहीं छिपाता
निरंतरता में कोई भी
 व्यवधान नहीं आता
सृष्टि की विशिष्ट कृति
 मानव है सबसे भिन्न
जुगनू सा जीवन उसका
टिमटिमाता सिमट जाता
पर कोइ दो एक से नहीं
भिन्न व्यवहार आपस में  उनके
भिन्न भिन्न आचरण उनके
कदम कदम पर बदलाव
कोइ निरंतरता नहीं
यदि दाग कोई लग जाए
छूटे या ना छूटे
उसे फर्क नहीं पड़ता
सहजता से उसे छिपा जाता
प्रकृति में परिवर्तन न होता
पर मनुष्य बदलता जाता
आचरण व्यवहार विचार
सभी में परिवर्तन होता |
आशा

23 टिप्‍पणियां:

  1. वास्तव में यह मनुष्य ही है जो हर पल हर क्षण नए रूप में दिखाई देता है ! प्रकृति के नियम अपरिवर्तनशील होते हैं ! शाश्वत सत्य को बड़ी सुंदर अभिव्यक्ति दी है ! गहन रचना !

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  2. बहुत सुंदर रचना आशा जी ....सत्या कह रही है ....प्रकृति अपने कर्तव्य पर अडिग रहती है ....मनुष्य देख कर भी सीख क्यों नहीं पता ...?
    गहन अभिव्यक्ति ।
    सादर शुभकामनायें ।

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  3. सचमुच मनुष्य बदल गया है-
    फितरत है यही-
    आभार आदरणीया-

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  4. प्रकृति अपरिवर्तनशील है... सदियों से चली आरही है... बहुत गहन.. रचना सादर

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  5. आपका कहना सही है ... मनुष्य बदल जाता है ...
    सीखता नहीं है इस प्राकृति से ...

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  6. अपनी बुद्धि का दुरुपयोग करता है मनुष्य!

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    उत्तर
    1. यही तो मनुष्य ने सीखा है और सीखा ही क्या है |

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  7. बहुत सुन्दर लिखा आपने..
    प्रकर्ति के बीच रहने वाला मनुष्य प्रक्रति से कुछ नहीं सीख पाता,
    बस मतलब के अनुसार अपने व्यवहार में बदलाव है लाता कोई नियम और कायदे नहीं इसके व्यवहार में...

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