हाँ या नां
कभी हाँ तो कभी ना
क्या समझूं इसे
उलझी हुई हूँ
गुत्थी को सुलझाने में |
यूं तो मुंह से
हाँ होती नहीं
लवों पर ना ही ना रहती
पर होती हल्की सी जुम्बिश
लहराती जुल्फों में
आरज़ू अवश्य रहती
कि ना को भी कोइ हाँ समझे
उलझी लट सुलझाए
प्यार का अहसास समझे
ना को भी हाँ समझ
नयनों की भाषा समझे
मन में उतरता जाए |
आशा
बहुत ही सुंदर बिम्ब, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
टिप्पणी हेतु धन्यवाद |
हटाएंबहुत सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना
हटाएंमन के भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंबहुत खूबसूरत रचना... आभार
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संध्या जी |
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