08 अक्तूबर, 2013

पुष्प



अपनों से जब तक
बिछुड़ा न था
अपूर्व आभा  लिए था
आकृष्ट  सभी को करता |
महक चहु  दिश फैलाता
अहसास अपने होने का
खोने न देता था
क्यूं कि वह सुरक्षित था  |
जब डाली से बिछुड़ा
गुलदस्ते में सजा
भेट प्रेम की चढ़ा
कुम्हलायाठुकराया गया
सब कुछ बिखर कर रह गया |
अब ना वह था
ना ही महक उसकी
सब कुछ अतीत में
 सिमट कर रह गया |
थी जगह धरती उसकी
जीवन धुँआ धुँआ हुआ
गुबार उठा ऊपर चढा
अनंत में समा गया |
अब न था अस्तित्व
ना खुशबू ना ही आकर्षण
बस थी धुंधली सी याद
उसके क्षणिक जीवन की |



15 टिप्‍पणियां:

  1. पुष्प का जीवन भले ही क्षणिक हो लेकिन अल्प समय में ही अपने सौन्दर्य, सौरभ एवं
    दर्शन से जिस अनुपम आनंद की वह सृष्टि करता है उसका सुख अपरिमित होता है ! बहुत सुन्दर रचना !

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  2. पुष्प के क्षणिक जीवन में भी वह खुशबु फैलाकर जाता है क्योकि वह जानता था हर हाल में उसे मुरझाना ही है \
    latest post: कुछ एह्सासें !

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  3. पुष्प की विडंबना है ... उसका जीवन ऐसे ही है पर पल भर में वो अपना एहसास करा जाता है ...

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  4. आपकी यह रचना कल बुधवार (09-10-2013) को ब्लॉग प्रसारण : 141 पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
    एक नजर मेरे अंगना में ...
    ''गुज़ारिश''
    सादर
    सरिता भाटिया

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  5. पुष्प की तरह है मानव जीवन भी क्षण भंगुर है ..बस मानव को भरम में जीता है की वह हमेशा रहेगा ...
    बहुत सुन्दर ..

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  6. मार्मिक प्रस्तुति - बहुत सुन्दर

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  7. सूचना हेतु धन्यवाद दर्शन जी

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