09 दिसंबर, 2013

अधोपतन


 
तू माया की धूप
जिसे वह रोज सेकता
मन को सुकून दे कर
हर पल खोया रहता |
ऐसा लिप्त होता
सुकून भी कूच कर जाता
मद की सरिता में बहता
प्रतिदिन डुबकी लगाता |
मद जब सिर चढ़ कर बोलता
होता सभी  से दूर
खुद में सिमट कर
 रह जाता |
धीरे धीरे मोह उपजता
तृष्णा कम न होती
बड़ी बड़ी बातें तो करता
पर मद से बच न पाता |
जब पलट कर देखता
अपने विगत में झांक कर 
क्या से क्या हो गया
विश्वास नहीं होता |
फिसलता जा रहा
पतन की ढलान पर
क्या आत्मा
विद्रोह नहीं करेगी
यूं ही सोती रहेगी  |

13 टिप्‍पणियां:

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  2. bahut hi umda likha hai aapne..
    Please Share Your Views on My News and Entertainment Website.. Thank You !

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  3. गहन दर्शन से रची बसी बहुत सुंदर रचना ! बहुत बढ़िया !

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  4. "क्या आत्मा
    विद्रोह नहीं करेगी
    यूं ही सोती रहेगी|"

    हृदयंगम पंक्तियाँ

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  5. भव पूर्ण सुन्दर रचना..मेरी नई पोस्ट में 'आमा' आप का स्वगत है..

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