तू माया की धूप
जिसे वह रोज सेकता
मन को सुकून दे कर
हर पल खोया रहता |
ऐसा लिप्त होता
सुकून भी कूच कर जाता
मद की सरिता में बहता
प्रतिदिन डुबकी लगाता |
मद जब सिर चढ़ कर बोलता
होता सभी
से दूर
खुद में सिमट कर
रह जाता |
रह जाता |
धीरे धीरे मोह उपजता
तृष्णा कम न होती
बड़ी बड़ी बातें तो करता
पर मद से बच न पाता |
जब पलट कर देखता
अपने विगत में झांक कर
क्या से क्या हो गया
विश्वास नहीं होता |
फिसलता जा रहा
पतन की ढलान पर
क्या आत्मा
विद्रोह नहीं करेगी
विद्रोह नहीं करेगी
यूं ही सोती रहेगी |
waah!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर -
जवाब देंहटाएंआभार आपका-
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंbahut hi umda likha hai aapne..
जवाब देंहटाएंPlease Share Your Views on My News and Entertainment Website.. Thank You !
गहन दर्शन से रची बसी बहुत सुंदर रचना ! बहुत बढ़िया !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जी |
हटाएं"क्या आत्मा
जवाब देंहटाएंविद्रोह नहीं करेगी
यूं ही सोती रहेगी|"
हृदयंगम पंक्तियाँ
टिप्पणी हेतु धन्यवाद जितेन्द्र जी |
हटाएंगहन अनुभूति लिए रचना...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंभव पूर्ण सुन्दर रचना..मेरी नई पोस्ट में 'आमा' आप का स्वगत है..
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद |
हटाएंसूचना हेतु धन्यवाद |
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