भारत में जन्मीं रची बसी 
मिट्टी के कण कण में 
यहाँ कई प्रदेश विभिन्न वेश 
भाषाएँ भी जुदा जुदा 
तब भी जुड़े एक बंधन में 
संस्कृति के समुन्दर में 
पर है 
अकूट भण्डार साहित्य का 
हर भाषा लगती  विशिष्ट 
और धनवान अपने वैभव में 
हिन्दी भी है उनमें एक  
न जाने क्यूं लगता है 
सरल सहज अभिव्यक्ति के लिए 
उसके जैसा कोइ नहीं 
तब भी जंग चल रही है 
अस्तित्व को बचाने की 
उसे राष्ट्र भाषा बनाने की 
वर्षों तक गुलाम रहे 
मन मस्तिष्क भी परतंत्र हुआ 
अंग्रेजी 
सर चढ़ कर बोली 
काम काज की भाषा बनी 
भूल गए अपनी भाषा ,
अपनी संस्कृति ,उसकी महानता 
तभी तो आज यहाँ अपनी  भाषा  
खोज रही अस्तित्व अपना |


