दीपक जला तिमिर छटा
हुआ पंथ रौशन
जिसे देख फूला न समाया
गर्व से सर उन्नत
एक ययावर जाते जाते
ठिठका देख उसका तेज
खुद को रोक न पाया
एकाएक मुंह से निकला
रौशन पंथ किया अच्छा किया
पर कभी झांका है
अपने आसपास ऊपर नीचे
दीपक की लौ कपकपाई
कोशिश व्यर्थ गयी
देख न पाई तिमिर
दीपक के नीचे
पर पंथी की बात कचोट गयी
उसके गर्वित मन को
जब गहराई से सोचा
पाया पथिक गलत न था
परमार्थ में ऐसा डूबा
अपना तिमिर मिटा न सका
पर फिर मन को समझाया
कुछ तो अच्छा किया |
आशा
sahi kaha pathik ne lekin deepak ka purusharth bhi paropkari tha ..sundar rachna ..
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद कविता जी |
हटाएंबहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंसन्तोष ही परम सुख है ....कुछ तो किया ......बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंlatest post प्रिया का एहसास
टिप्पणी लेखन को प्रखर करती है |धन्यवाद सर |
हटाएंबहुत सुंदर रचना ! अपने हितों का त्याग करके ही परोपकार किया जा सकता है ! दीपक के परमार्थ की भावना की उपेक्षा नहीं की जा सकती !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना जी |
हटाएंबहुत सुन्दर सन्देशप्रद सार्थक रचना ..
जवाब देंहटाएंधन्यवाद टिप्पणी के लिए |
हटाएंसुन्दर रचना-
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीया-
रविकर जी धन्यवाद
हटाएंबहुत सुंदर रचना !
जवाब देंहटाएंइस माह के अंत तक मेरी नई पुस्तक सुनहरी धूप छाप कर आ जाएगी |
हटाएं@कुछ तो अच्छा किया
जवाब देंहटाएंवाह !!
टिप्पनी हेतु धन्यवाद सतीश जी |मुझे आपकी कविता बहुत अच्छी लगी |
हटाएंसूचना हेतु धन्यवाद सर |
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