21 मार्च, 2014

गौरैया




गाँव में छप्पर के नीचे
खिड़की ऊपर एक धोंसला
हर साल बना करता था
था वह नीड़ गौरैया का 
वह आती ठहरती चहचहाती
चूजों को दाना खिलाती
फिर  कहीं उड़ जाती |
इस बार घर सुधरवाया
पक्का करवाया
अब वहां नहीं कोइ नीड़ बना
था इन्तजार पर वह ना आई
एक बात ही समझ में आई
 उसे आधुनिकता पसंद न आई |
मैं रोज  एकटक
उस स्थान को देखती हूँ
सूना सूना देख उसे
बहुत आहत होती हूँ
सोचती हू क्यूं  पक्का करवाया
यदि वह जगह वैसी ही होती
गौरैया आँगन में होती |
आशा

13 टिप्‍पणियां:

  1. आ० बहुत हि सुंदर लेखन , धन्यवाद !

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (22-03-2014) को "दर्द की बस्ती" :चर्चा मंच :चर्चा अंक: 1559 में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. वाकई आधुनिकता की दौड में हम अपने पर्यावरण से छेड़छाड़ कर इन मासूम परिंदों को सबसे अधिक कष्ट पहुंचाते हैं ! बहुत सुन्दर रचना !

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  4. और घर-आंगन में फुदकने वाली हमारी बचपन की साथी गौरैया रूठ गई हमसे …सार्थक सन्देश

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  5. इतनी भोली,इतनी प्यारी चिड़िया जैसे घर में हँसी लहरा गई हो !

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  6. बहुत सुंदर.अब गांवों में भी गोरैया कहाँ दिखती है.लगता है इंसानों की नज़र लग गई है.

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