गाँव में छप्पर
के नीचे
खिड़की ऊपर एक
धोंसला
हर साल बना करता
था
था वह नीड़
गौरैया का
वह आती ठहरती
चहचहाती
चूजों को दाना
खिलाती
फिर कहीं उड़ जाती |
इस बार घर
सुधरवाया
पक्का करवाया
अब वहां नहीं
कोइ नीड़ बना
था इन्तजार पर
वह ना आई
एक बात ही समझ
में आई
उसे आधुनिकता पसंद न आई |
मैं रोज एकटक
उस स्थान को
देखती हूँ
सूना सूना देख उसे
बहुत आहत होती
हूँ
सोचती हू क्यूं पक्का
करवाया
यदि वह जगह वैसी
ही होती
गौरैया आँगन में
होती |
आशा
आ० बहुत हि सुंदर लेखन , धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद सर
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (22-03-2014) को "दर्द की बस्ती" :चर्चा मंच :चर्चा अंक: 1559 में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सूचना हेतु धन्यवाद सर |
हटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद संजय |
हटाएंवाकई आधुनिकता की दौड में हम अपने पर्यावरण से छेड़छाड़ कर इन मासूम परिंदों को सबसे अधिक कष्ट पहुंचाते हैं ! बहुत सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद साधना |
हटाएंऔर घर-आंगन में फुदकने वाली हमारी बचपन की साथी गौरैया रूठ गई हमसे …सार्थक सन्देश
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद संध्या जी |
हटाएंइतनी भोली,इतनी प्यारी चिड़िया जैसे घर में हँसी लहरा गई हो !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.अब गांवों में भी गोरैया कहाँ दिखती है.लगता है इंसानों की नज़र लग गई है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.....
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