कभी पलट कर देखना
जहां हो वहीं ठहर जाओगे
किसी ने यदि नाम पूंछा
वह भी भूल जाओगे |
प्रेम रोग है ही ऐसा
दीवानगी की हद पार करता
सारी बातें भूल कर
खुद में ही सिमट जाता |
वह कम नहीं किसी करिश्में से
जो भी इसमें खो जाता
सब कुछ अपना हारता
पर एक उपहार पाता |
आनेवाले जीवन में
यही बड़ा संबल होता
प्यार तो प्यार है
उसका कोई नाम न होता |
है छोटी सी बानगी
उसकी जादूगरी की
उसमें
खोते ही
खुद को भूल जाओगे
फिर
लौट नहीं पाओगे |
आशा
प्रेम को सही अर्थों में परिभाषित करती बहुत ही सुंदर रचना ! अत्युत्तम !
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवाद |
हटाएंबहुत सुंदर रचना.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद राजीव कुमार झा जी |
हटाएंसही शब्दों में प्रेम को परिभाषित हुआ है .....बहुत सुन्दर .....!
जवाब देंहटाएंटिप्पणी हेतु धन्यवादं संजय |
हटाएंअति सुंदर............................
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ब्लॉग पर आने के लिए |
हटाएंधन्यवाद अरुण जी |
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (04-03-2014) को "कभी पलट कर देखना" (चर्चा मंच-1541) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
ढाई अक्षर का प्रेम है , प्रेम बड़ा विस्तार .
जवाब देंहटाएंजो परिपूर्ण है प्रेम से , उसका ह्रदय उदार .
ब्लॉग पर आने के लियें और टिप्पणी के लिए धन्यवाद |
हटाएंबढ़िया प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आपका-
धन्यवाद रविकर जी |
हटाएंआ० और मैं क्या कहूँ , बस इतना हि कह रहा हूँ की - तारीफ करूं क्या उसकी जिसने आपसे ये रचना बनवाया , धन्यवाद
जवाब देंहटाएं॥ जय श्री हरि: ॥
पसंद के लिए धन्यवाद |
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