13 अप्रैल, 2014

कुसुम



महकती चहकती
निशा सुन्दरी श्रंगार करती
सध्य खिलते सौरभ बिखेरते
डाली पर सजे पुष्पों से |
भीनी खुशबू जब आती
उसी और खींच ले जाती
पवन से हिलती डालियाँ
श्वेत चादर सी बिछ जाती  
प्रातः वृक्ष के नीचे |
सुनहरी धुप के सान्निध्य से
कुम्हलाते पर दुखी न होते
अपने सुख दुःख भूल
जीवन जीते मस्ती से |
उनकी जीने की कला
तनिक भी यदि सीखी होती
जितनी  साँसे  मिलतीं
खुशी खुशी जी लेते
उनका भरपूर उपयोग करते |
आशा

14 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड की ९५ वीं बरसी - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. जीवन जीने की की कला प्रकृति के संदेशों से सीखी जा सकती है.

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  3. हरसिंगार के कोमल सुमनों सी सुरभित सुंदर रचना ! बहुत बढ़िया !

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  4. बहुत सुन्दर...कोमल सी कविता!

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