25 मई, 2014

व्यथा पिता की


 


हारा तन के संताप से
मन के उत्पात से
जीवन व्यर्थ हुआ
 जग के प्रपंचों  से |
बचपन में अकेला था
कोई मित्र न मेरा था
केवल घर ही मेरा था
पर बीमारी ने घेरा था |
यौवन में पा संगिनी
घर में देखा स्वप्न
प्रजातंत्र लाने का
हर बात के लिए
 सबसे साझा करने का |
सब ने जाना केवल
अधिकार बोलने का
आज है ना कोई वजूद मेरा
ना ही कोई आवाज
उस शोर में दब कर रह गई है
आज मेरी पहिचान |
बेबस मूक दर्शक हूँ
अपनी व्यथा किससे कहूँ
पिस रहा हूँ
 चक्की के दो पाटों में |

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