22 अक्टूबर, 2014

एकाधिकार




प्रीत की यह रीत नहीं
अनजान नहीं अब वह भी
फिर भी खोई रहती है
हर पल उस में ही  |


उसे वही चाँद चाहिए
जीने का अरमां  चाहिए
हार अपनी कैसे माने
उसे सहन न कर पाती

बचपन में सब बंट जाता था
क्रोध कभी भी ना आता था
भूले से यदि आया भी
माँ बड़े प्यार से समझाती थी  |

तुम बड़ी हो त्यागी बनो
मेरा तेरा नहीं करो 
सब को देकर ही खाओ 
प्यार पनपता जाएगा |

पर अब सर्वे सर्वा है
कुछ भी छिपा नहीं उससे
अपना प्यार किसी से बांटे
कल्पना तक कर  नहीं पाती
अपना एकाधिकार चाहती |
आशा

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