02 नवंबर, 2014

अकूत संपदा




कब तक समेटोगे
कुदरत के करिश्मों को अपनी बाहों में
विपुल संपदा सिमटी है
उसकी पनाहों में
कहीं गुम न हो जाना
घने घनेरे हरे वनों में
किसी छवि पर मोहित हो कर
आसान न होगा बाहर आना
कहती हूँ मुझे साथ ले लो
जब एक से दो होंगे
खतरा तो न होगा
 राह भटक जाने का
तुम न जाने किस घुन में रहते हो
अपनी सोच में डूबे से
हंसते हो मुस्कुराते हो
अचानक उदासी का दामन थाम लेते हो
तुम्हें कैसे कोई  समझ पाए
अच्छा नहीं  लगता 
यह उदासी का आलम
कुछ सोच कर  फिर सिमेट लेती हूँ
अपनी स्वप्नजनित 
 अदभुद तस्वीरों को
जाने कब तुम आकर सांझा करोगे
मेरे संचित इस धन को
हसोगे हँसाओगे
जीवन के रंग लौटाओगे
बांटोगे अपने संचित अनुभव
और कोई न होगा हमारे बीच |

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