09 नवंबर, 2014

अकर्मण्य


चाहती बहुत कुछ
पर साहस की कमी
अवसर निकले हाथों से
भुना न पाई आज तक
मन में मलाल आया
आलम उदासी का  छाया
रात रात भर जागती
खांसती कराहती
पलायन का ख्याल आता
 बारम्बार झझकोरता 
पर इतनी कायर भी नहीं 
 निष्क्रीय निढाल
तर्क कुतर्क में उलझी
खुद ही में सिमटती गई
निंद्रा से कोसों दूर हुई
जाने कब सुबह हुई
भोर से नजरें चुराती
अक्षमता का बोध लिए
ओढ़ रजाई सो गई 
दिवास्वप्न में खो गई |
आशा

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