01 मार्च, 2015

दुविधा



है दुविधा मन पर हावी 
और राह चुनना भारी  
क्लांत मना दोराहे पर खड़ी हूँ
मार्ग भी दृष्टि से ओझल
हर ओर धुंधलका छाया 
सर पर न किसी का साया  
कड़ी धूप से सहमी  हूँ
खुद ही निश्चय करना है 
कौनसा मार्ग चुनना है
कभी सिमटने लगती हूँ
अपने ही विचारों में
सोच भी साथ नहीं देता
मस्तिष्क शिथिल सा हो जाता
जानती हूँ मार्ग तो चुनना ही  है
फिर भी अस्पष्ट सोच  से घिरी हूँ
पल पल साहस सजो रही हूँ 
सही गलत को टटोल रही हूँ
शायद सफल हो पाऊँ
  कशमकश से उबर  पाऊँ |
आशा

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