बसी अंग अंग
फागुनी पवन संग
प्रसाद भोले का जान |
मनमौजी बना जाती
मन में बसती
उसे तरंगित करती
आनंद से भरती |
आनंद से भरती |
कभी लगती चुम्बक सी
खुद की और खींचती
चहु और रंग रूहानी होता
खिलखिलाने का मन होता |
पर न जाने क्यूं
उदासी अपना डेरा जमाती
रोना बंद न होता
तो कभी हंसने का दौरा पड़ता |
तो कभी हंसने का दौरा पड़ता |
बेसमय सोना हसना हंसाना
संयम का कोई न ठिकाना
एक ही कार्य की पुनरावृत्ति
विजया का मजा देती |
पर भोले का प्रसाद
भंग की सौगात
प्रसाद न रह जाता
भंग की सौगात
प्रसाद न रह जाता
नशे में बदलने लगता |
जी का जंजाल हो भंग
मन की शान्ति हरती
जीवन अस्तव्यस्त होता
नशे की आदत में बदलता |
जब कदम उस और जाते
विजया विजया न रहती
जीवन अस्तव्यस्त होता
नशे की आदत में बदलता |
जब कदम उस और जाते
विजया विजया न रहती
भंग का गोला हो जाती
कितनी बेमानी होजाती |
आशा
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