04 मार्च, 2015

विजया

विजया की तरंग 
बसी अंग अंग 
फागुनी पवन संग 
प्रसाद भोले का जान |
मनमौजी बना जाती
मन में बसती 
उसे तरंगित करती
आनंद से भरती |
कभी लगती चुम्बक सी 
खुद की और खींचती 
चहु और रंग रूहानी होता 
खिलखिलाने का मन होता |
पर न जाने क्यूं
उदासी  अपना  डेरा  जमाती
रोना बंद न होता
तो कभी हंसने का दौरा पड़ता |
बेसमय सोना  हसना हंसाना 
संयम का कोई न ठिकाना 
एक ही कार्य की पुनरावृत्ति  
विजया का मजा देती  |
पर भोले का प्रसाद
भंग की सौगात
प्रसाद न रह जाता
 नशे में बदलने लगता |
जी का जंजाल हो भंग
मन की शान्ति हरती 
जीवन अस्तव्यस्त होता
नशे  की आदत  में बदलता |
जब कदम उस और जाते
विजया विजया न रहती 
भंग का गोला हो जाती 
कितनी बेमानी होजाती |
आशा



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