29 अप्रैल, 2015

है वह ऐसा ही

 
शून्य में ताकता एक टक
मुस्कुराता कभी सहम जाता 
गुमसुम सा हो जाता 
चुप्पी साध लेता |
चाहे जहां घूमता फिरता
 बिना किसी को बताए 
बच्चों की चुहल से त्रस्त होता
पर कुछ न कहता  |
लोगों ने उसे पागल समझा 
रोका न टोका 
कुछ भी न कहा |
आकाश से टपकती जल की बूँदें 
उसे उदास कर जातीं 
सोचता वे किसी
 विरहणी के अश्रु तो नहीं  |
उन्हें देख आंसू बहाता 
प्रकृति का एक अंश 
जाने कहाँ खो जाता 
वह सोच  नहीं पाता  |
कुहू कुहू कोयल की सुनता 
अमराई में उसे खोजता 
वह हाथ न आती उड़ जाती 
वह कारण खोज न पाता |
था यह खेल प्रकृति का 
या उसके मन की उलझन
समझ नहीं पाता
अधिक उलझता जाता  |
बैठा है आज भी गुमसुम 
विचारों का जाल बन रहा 
ना हंसना हंसाना 
ना ही संभाषण किसी से |
है वह ऐसा ही सब जानते
ना जाने यह तंद्रा कब टूटेगी 
वर्तमान में जीने की चाह 
मन में जन्म लेगी |








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