स्वप्न सजाए  थे  कभी
तुझ को  समर्पण  के  
कदम बढ़ाए  थे
आशाएं मन में लिए  । 
पर तेरे पाँव की
धूल तक छू न सके
जिस पर  गुमान कर पाते
अभिमान से सिर उठाते । 
आशा अभी बाक़ी है 
पर  अक्स तेरा 
कहीं खो गया है 
दूर मुझसे हो गया है ।
वर्षों से भटक रहा हूँ
तेरी झलक पाने को
आँखें हुई बेकल
दरश तेरा पाने को ।
मुझसे क्या त्रुटि हुई
कम से कम
इशारा तो किया होता
मन में मलाल न रहता ।
यदि चरणों में जगह मिलती
कुछ तो सुधार होता
दर दर न भटकना पड़ता
अधूरा स्वप्न पूर्ण होता   
आशा 
.jpg)
 
 
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Your reply here: