किये बंद कपाट ह्रदय के
ऊपर से पहरा नयनों का
कोई मार्ग नहीं छोड़ा
उस तक पहुँचने का
ताका झांकी कैसे हो
यह भी नहीं संकेत दिया
क्या मन में छिपाया
क्या कहना चाहा
जब बोलती तो पता होता
अन्धकार में छोड़ा तीर
सही निशाना तो होता
बंद दरवाजा मन का
देता नहीं मंजूरी
किसी को आने की
बातों ही बातों में
उलझने बढाने की
क़यामत तो तब आती
जब जवां तक बात आती
कहने का मन बनाती
पर बिना बोले लौट जाती
बंद दिल का कपाट
मुंदी आँखों की भाषा
यदि पढ़ने की क्षमता होती
ऐसी उलझन न होती
वह बहुत निकट होती |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
Your reply here: