आधी अधूरी जिन्दगी
कागज़ की कश्ती सी
बहती जाती डगमगाती
वार लहर का सह न पाती
हिचकोले खाती
असंतुलन से नजरें मिलाती
धीरे धीरे गलने लगती
है नश्वर वह जान जाती
पर जल से सम्बन्धन बना पाती
समय ने भी सिखाना चाहा
साथ चलो बढ़ते जाओगे
पर बात समझ से थी परे
उस पर अमल न कर पाई
कागज की कश्ती डूब गई
वह तो यह
भी न कर पाई
अपने आपमें उलझी रही
समय से सीख न ले पाई
अब बहुत देर हो चुकी है
किसी के सुझाव मानने को
अपनी त्रुटियाँ जानने को
विचारों को मूर्त रूप देने को
जीवन की शाम उतर आई है
और इंतज़ार बाक़ी है
मुकाम तक पहुँचने को |
आशा
आशा
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