मन की बातें मन
में ही
उलझी सी सदा बनी
रहतीं
कभी सजग कभी
सुप्त
उसे अशांत किये
रहतीं
कितना भी प्रयत्न
करें
पिंड छोड़ नहीं
पातीं
उसे बेचैन किये रहतीं
खुशियों के क्षण
मुश्किल से मिलते
दुःख से ही सदा घिरे
रहते
तराजू के दोनो
पलड़े
ऊंचे नीचे होते
रहते
संतुलित न हो
पाते
है कितनी आतुरता
संयम खुद पर रखने को
फिर भी हल सरल
कोई भी नहीं
दीखता
पलड़ा दुःख का
झुकता जाता
कम न होना चाहता
विश्रांति के
पलों में
झंजावात सा उठाता
अधिक अशांत कर
जाता
क्या कभी मुक्ति
मिल पाएगी
जीवन के उतार
चढ़ावों से
या यूँ ही विचलन
बना रहेगा
चिर निंद्रा के
आगमन तक |
आशा
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