07 नवंबर, 2015

विचलन


प्रतीक्षा के लिए चित्र परिणाम
मन की बातें मन में ही
उलझी सी सदा बनी रहतीं
कभी सजग कभी सुप्त
उसे अशांत किये रहतीं
कितना भी प्रयत्न करें
पिंड छोड़ नहीं पातीं
उसे बेचैन किये रहतीं
खुशियों के क्षण मुश्किल से मिलते
दुःख से ही सदा  घिरे रहते
तराजू के दोनो पलड़े
ऊंचे नीचे होते रहते
संतुलित न हो पाते
है कितनी आतुरता
संयम  खुद पर रखने को
फिर भी हल सरल
कोई भी नहीं दीखता
पलड़ा दुःख का झुकता जाता
कम न होना चाहता
विश्रांति के पलों में
झंजावात सा उठाता
अधिक अशांत कर जाता
क्या कभी मुक्ति मिल पाएगी
जीवन के उतार चढ़ावों से
या यूँ ही विचलन बना रहेगा
चिर निंद्रा के आगमन तक |
आशा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Your reply here: