15 मई, 2016

मुक्तक (बातें मन की )

गंभीर धरा सा के लिए चित्र परिणाम


गहराया संकट जब भी वह पर्वत सा अटल हुआ 
हिम्मत न हारी यत्न किया उच्च शिखर तक जा पहुंचा
फिर भी संतुष्टि न मिल पाई सोचने को बाध्य था 
यह कैसी प्यास थी मन में वहाँ  पहुंचा पर खुश न हुआ |


कह दो जा कर उनसे,मेरी राह में न आएं
मेरे हाल परअपने,झूठे आंसूं न बहाएं
अन्दर कुछ मुंह में कुछ,उन्हें शोभा नहीं देता
ख्याल अपनी उम्र का,ज़रा ठीक से निभाएं 



कितना दर्द और सहते चाह कर भी बढ़ न सके ,
मन में बसी मूरत टूटी .किरचें भी न समेट सके
अब तो तलाश रहती है ,कब जिन्दगी की शाम हो
शाम तो  ढल जाए मगर , अन्धकार फिर जा न सके |


अजी सुबह तो होने दो ,पक्षी स्वतः ही चहकेंगे
होंगे पाँव जब सही राह पर ,इधर उधर न बहकेंगे
प्यार भी छुप न पाएगा ,कभी तो रंग दिखाएगा
नजर की धुप खिलने दो , फूल चाहत के खिलेंगे |



आशा


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