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16 अगस्त, 2016
न जाने क्यूं
आज न जाने क्यूं
एकांत की चाह में
बहुत दूर निकल आई
रंगीनिया वादियों की
यहाँ तक खींच लाईं
विविध रंगों की झांकी
देख आँखें नहीं थकतीं
मन लौटने का न होता
वहीं ठहरना चाहता
यह बड़ा सा पुल
और पास की हरियाली
आगे की राह नहीं सूझती
पर व्योम की छटा ने
कमी पूरी करदी
नीली चादर ओढ़ धरा
अधिक ही प्यारी लगती |
आशा
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