01 अप्रैल, 2018

जिन्दगी की धूप -छाँव






जिन्दगी के खेल  में  
 बड़ा है झमेला
कहाँ शुरू कहाँ ख़तम 
 किसी ने न जाना
 पहले पहल जब आँखें खुली  
लुकाछिपी खेली सूरज से
 कुनकुनी धूप सुबह की
 कहीं  ले गईं मन को
मन रमता  खेलकूद में
शैशव बीतता चढ़ते दिन सा
भरी दोपहर में तपती धूप में
पहुँचते अपने कार्य क्षेत्र में
योवन कब कहाँ खो जाता
समय न मिलता सोचने का
धूप- छाँव के खेल खेलता सूरज
   रथ पर हो कर सवार धीरे से 
 चल देता अस्ताचल को
रौशनी कम कम होने लगती 
  वह दिखता कांसे की थाली सा

जाने कब शाम गुजर जाती 

जान नहीं पाते 

जीवन अनुसरण करता 

आते जाते सूरज का
रात को सो जाता  सूरज 
डेरा जमाते सपने आकर 
जाने क्यूँ महसूस होता 
 अब  समय आ गया
जीवन के अवसान का 
आत्मा की मुक्ति का |
आशा

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