बचपन से ही डर लगता है
आदी नहीं किसी वर्जना की
ऊंची आवाज से भयभीत हो
अपने अन्दर सिमट जाती है
उस पर है प्रभाव है इस कदर
अँधेरे में सिहर जाती है
रात में नहीं जाती बाहर
डर जाती है अपनी ही छाया से
जानती है वहां कोई नहीं है
अकेली है वह
अकेलेपन से जूझती रहती
पर ज़रा सी आहट से
काँप जाती सर से पाँव तक
दूर कैसे करे मन के डर को
सब समझा कर हार गए हैं
है स्वयं ही डर की सृजनकर्ता
भय मन से जब दूर होगा
ओढ़ा डर का आवरण
झाड़ झटक बाहर करेगी
वह दृढ निश्चय करेगी
सभी से सामना करने की
क्षमता है उसमें तब ही
किसी से नहीं डरेगी |
किसी से नहीं डरेगी |
आशा
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