इस जिन्दगी के मेले
में
अनगिनत झमेले हैं
माया तृष्णा मद मोह
मुझे चारो ओर से
घेरे हैं |
ममता का आँचल
सर पर से हटते ही
घरती पर आ कर गिरी
तभी सच्चाई के दर्शन
हुए |
दुनियादारी में ऐसी उलझी
माया मोह में लिप्त
हुई
जैसे तैसे मन पर किया
नियंत्रण
इन से छुटकारा पाने
के लिए |
पर तृष्णा से पार न पाया
ज्यों ज्यों किया
संवरण
इसका मुंह बढ़ता गया
सुरसा के मुख सा |
खुद पर कितना करती
नियंंत्रण
अंत हीन राह पर चलते
हारी थकी प्रभु तेरी
शरण में आई
तृष्णा से फिर भी
खाई मात |
उससे जीत न पाई
जितनी दूरी बनाती
उससे
फिर वहीँ खुद को
पाती हूँ
बस यहीं हार जाती हूँ |
आशा
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