मुश्किल है रिश्तों
को निभाना
वे कच्ची डोर से बंधे होते
जरा से झटके में टूट
जाते
मन को टूटन बहुत
खलती है
पर गलती कहाँ से
प्रारम्भ हुई
खोज कर देख नहीं
पाते
केवल पछतावे के
सिवाय
दुखी होने के अलावा
कुछ हाथ नहीं आता
रिश्ते फिर से सुधर नहीं पाते
यदि कोशिश की जाए
आंशिक सुधार होता है
रिश्तों की चादर में थेगड़े लगे
स्पष्ट नजर आते हैं
वह बात नहीं रहती
उनमें
जो बनाते समय रही थी
है नहीं आसान
टूटे रिश्तों को सवारना
टूटे रिश्तों को सवारना
उससे अधिक मुश्किल है
अपनी कमियों को स्वीकारना
जब रिश्ते निभा नहीं सकते
फिर पहल किस लिए ?
आशा
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