समय नहीं मिलता
कभी कुछ सोचने का
भरी दोपहर में खड़ी
विचार शून्य सी
मैं सोच रही चौराहे
पर
सर पर तपते सूरज की
किरणें
खुद का साया जो सदा
साथ रहने का वादा करता
अभी साथ नहीं है
न जाने क्यूँ ?
साया बहुत लंबा होता
आगे आगे चलता था
फिर छोटा होता गया
अब मेरे कदमों में
छिप कर
अंतरध्यान हो गया है
बातें उसकी झूटी
निकलीं
किसी ने सच कहा है
साथ चलने के लिए ही
आवश्यकता होने पर
सही समय आने पर
अपना साया भी साथ
नहीं है |
बहुत ही सुन्दर रचना दी जी
जवाब देंहटाएंसादर
धन्यवाद अनीता जी टिप्पणी के लिए |
हटाएंसुप्रभात
जवाब देंहटाएंसूचना हेतु आभार यशोदा जी ||
सुंदर रचना आशा दी
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर रचना ,सादर नमस्कार
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